शनिवार, 4 नवंबर 2017

लप्रेक (लघु प्रेम कथा)- कैलकुलस



सत्यार्थ और सोनाली ग्यारहवीं में हैं। डीपीएस नवाबगंज में। मैथ का ट्यूशन भी पढ़ते हैं।
सत्यार्थ- “सोनाली, अगर डिस्प्लेसमेंट 3t²-5 है तो इसको टाइम के रेस्पेक्ट में डिफ्रेन्शिएट करने पर कॉन्स्टेंट की वैल्यू ज़ीरो क्यों हो जाती है।”
सोनाली- “आई डोंट नो यार, आज शाम को सर से पूछते हैं।"

सत्यार्थ- “सर, अगर डिस्प्लेसमेंट 3t²-5 है तो इसको टाइम के रेस्पेक्ट में डिफ्रेन्शिएट करने पर कॉन्स्टेंट की वैल्यू ज़ीरो क्यों हो जाती है।”
सर किताब पलट के पीछे से उत्तर देख लेते हैं फिर- “देखो 5 के साथ t नहीं है न, इसलिए 5 ज़ीरो हो जाएगा।”
सोनाली- हाँ सर, ठीक है।

दोनों क्लास से बाहर आते हैं।
सत्यार्थ- सोनाली, तुमको समझ में आ गया?
सोनाली- हाँ, सही तो बताया सर ने।
सत्यार्थ- यार हमको कुछ समझ में ही नहीं आया। कन्फ्यूजन और हो गया है। ये मास्टर हमको बिल्कुल हउलट लगता है। मैं कल से इसके यहाँ पढ़ूँगा ही नहीं। दिमाग खराब कर दिया है इसने मेरा।
सोनाली एक पल रुककर बोली- फिर मैं भी नहीं पढ़ूँगी इनसे। चलो कोई दूसरा टीचर ढूंढते हैं।
सत्यार्थ- कल स्कूल के बाद चलते हैं।

लप्रेक (लघु प्रेम कथा)- सूफी इश्क

सूफी और गोविन्द एक ही मोहल्ले में रहते हैं। सूफी B.Sc. कर रही है क्राइस्ट चर्च कॉलेज से, और गोविन्द की फुटवियर शॉप है परेड में, जहाँ आर्डर देने पर मनपसंद डिजाइन के फुटवियर बनते हैं।

सूफी एक दिन गोविन्द की शॉप में गयी।
‘एक जूती बनवानी है’
गोविन्द- बन जाएगी। नाप दे दो और डिजाइन बता दो। बना देंगे।

‘पिछली बार ऐसी जूती दी थी अंकल ने कि मेरा पैर कट गया था।'
गोविन्द- अरे तो तुमने बताया क्यों नहीं?
‘क्या करते बता देती तो? नयी तो देते नहीं? कि दे देते?’
गोविन्द के पिता जी, कमला पसन्द थूकते हुए- “नया काहे देते! नहीं, मने नया काहे देते! और नया दे भी देते तो वो भी तो पैर काट देता। अरे अब नया जूता है तो पैर काटेगा ही। इसके लिए इतना उपद्रव काहे कर रही हो।”

“तुम अभी जाओ। इस बार पैर नहीं काटेगा।” पिता जी की बात से गोविन्द थोड़ा उदास हो गया।

एक हफ्ते बाद..

आज सूफी अपनी अम्मी के साथ गोविन्द के शॉप आयी है।
अम्मी- ‘अरे गोविन्द बेटा तुमने जूती बहुत अच्छी बनाई है। बहुत आराम मिलता है चलने में।’
गोविन्द- अरे! लेकिन आंटी वो तो सूफी के पैर के नाप की बनाई थी।
अम्मी- हाँ, मेरा और सूफी का साइज सेम ही है। और सूफी ने ये जूती मेरे लिए ही बनवाई थी।
सूफी गोविन्द को कनखियों से देख रही है। गोविन्द को हँसी आ गयी।

गोविन्द के पिता जी, मुस्कुराते हुए- “आ लेव। अब दिखाओ बत्तीसी बइठ के यहां। गदहा।  
दो दिन में इस लड़के ने सिर्फ एक जूता बनाया है।
पर इतने मन से बनाया कि हमको हमारी जवानी याद आ गयी।
ऐसे ही दो चार ग्राहक और मिल जाए तो ये दुकान का भट्ठा बैठा देगा। है कि नहीं बहन जी!”

“हाँय !!” अम्मी को समझ नहीं आया कि पिता जी का मजाक था किस पर। 
सूफी को इतनी तेज हँसी आयी कि वो शॉप से बाहर ही निकल गयी।

पिता जी कमला पसंद का तम्बाकू खोज रहे हैं। गिर गया है कहीं।


गोविन्द अभी भी धीरे-धीरे मुस्कुरा रहा है।

लप्रेक (लघु प्रेम कथा)- मिठका चटनिया

राकेश और गुलिया नौवीं में पढ़ते हैं। गांव के स्कूल में। घर भी आसपास ही है दोनों के।

आज गुलिआ पहली बार फिल्म देखने आई है। जन्मदिन है आज गुलिआ का। पिछले साल राकेश वादा किया था कि इस जन्मदिन पर उसको फिल्म दिखाएगा। बारह किलोमीटर साईकिल चलाकर लाया है वह गुलिया को। 

कृष्णा टॉकीज में लगी है सारू खान की ‘कल हो न हो’।

फिल्म देखते-देखते गुलिया सुबक-सुबक के रो रही है।
राकेश उसको बार बार कह रहा है- अरे ये सब नाटक है। कोई सच्ची में थोड़ी न हो रहा है। 
गुलिया फिर भी सुबक रही है।

फिल्म खत्म हो गई। दोनों टॉकीज के बाहर निकलें हैं। गुलिया की आंख सूज गयी है रोते-रोते।
राकेश- “गुलिया, समोसा खाएगी?”
“हूँ। मीठी चटनी वाली”
राकेश- ‘काका दू जगे समोसा दिह, मिठका चटनिया डाल के।’

वापस लौटते समय साईकिल के कैरियर पर बैठी गुलिया अब भी सुबक रही। सारू खान बार-बार याद आ रहा उसको।
सुबकते हुए राकेश से बोली- “तुम कभी बिदेस मत जाना कमाने के लिए। यहीं रहना गांव में।”
राकेश- गुलिया, अब मत रोना। गांव आने वाला है।



भूल गया हूँ क्या

भूलता नहीं हूँ तुम्हें
काम में व्यस्त होता हूँ
और तुम हो कि रूठ जाती हो।
बताओ ऐसे चलता है क्या?

प्रेेम से
पेट तो नहीं भरता न!

ये ज़िन्दगी के कायदे
हमने थोड़े न बनाए हैं।

हम तो जीते हैं
उन कायदों को,
अहंकार मेें छाती फुला कर
सभ्यता का प्रमाण
प्रस्तुत करते हैं।

सभ्य लोगों की ही
कद्र होती है यहाँ,
प्यार करने वाले
तो अभद्र होते हैं।

लप्रेक (लघु प्रेम कथा)- ब्लैक लिस्टेड बैंड

अच्छा एक बात बताओ।
ये तुम्हारे अर्मि के हैंडबैग में ऐसा क्या है कि इतना पसन्द है तुमको?

“सुनो, तुम्हारा ओक्ले का सनग्लास अच्छा लगता है तुमपर”
थैंक्यू।
“एस्पेशली वेन यू राईड योर थंडरबर्ड।”
अच्छा, और बिना बाइक के हम अच्छे नहीं लगते?
“आई डिडन्ट मीन दैट। तुम भी न! एंड बाई द वे, तुम बिल्कुल बुद्धु हो।”
अच्छा, अब हम बुद्धु भी हो गए। वाह, और कुछ मैडम?
शी कुडन्ट रेजिस्ट हर स्माइल एंड सेड - “बुद्धु हो तभी तो इतने क्यूट हो।”

लड़का सोच में पड़ गया। 
बाहर एरीना में ब्लैक लिस्टेड का बैंड परफॉर्मेंस है। 
शो देखकर दोनो अपने-अपने पीजी लौट गए।

नेक्स्ट मॉर्निंग गर्ल रिसीव्ड ए टेक्स्ट फ्रॉम द गॉय- “तुम्हारा हैंडबैग अच्छा लगता है तुमपर।”

गर्ल रिप्लाइड- “वॉट एबाउट डिनर ऑन फ्राइडे नाइट. आर यू फ्री?”

लप्रेक (लघु प्रेम कथा)- पाँच रुपया

कानपुर की कोचिंग मंडी है काकादेव। और काकादेव में रहते हैं दो टाइप के लोग। पढ़ने वाले और पढ़ाने वाले। बाकी जो हैं वो इन्हीं दो के भरोसे खा पी रहे हैं।

आज यूपी बोर्ड का रिजल्ट आया है। हाईस्कूल का। घाटमपुर के भीतर गांव के विजय को बासठ परसेंट बने हैं दसवीं में। अब विजय काकादेव आ गया है आई.आई.टी. की तैयारी करने। फाउंडेशन बैच में।
शाम को सर्वेश सक्सेना के सामने चाय के ठेले पर चाय पी रहा है। साथ ही अख़बार पर भी नज़र है।

एक लड़की चायवाले से लड़ रही है। वो उसका पाँच रुपया वापस नहीं कर रहा है। विजय शुरू से ही सब कुछ देख रहा है। देख रहा है कि चायवाला जबरदस्ती पाँच रूपए ज्यादा ले रहा है।

विजय- का भाई, का बात है! पइसवा काहे नहीं लौटा रहे उसको?
चायवाला- अबे, तुमको का लेना-देना है। तुम चाय पीओ ना अपना।
विजय- “देखो बे अइसा है, चाय तो हम पी के ही जाएँगे। लेकिन हमसे तुम ज्यादा फैंटम मत बनो। कायदे में इसका पइसा लौटा दो। नहीं फिर हम अपना परिचय देंगे तो कल से दुकान नहीं लग पाएगी तुम्हारी।”
चायवाला डर के पइसा वापस कर दिया।
लड़की पैसा लेकर चली गई।

तीन साल बाद
विजय एन.आई.टी. सूरत से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में बीटेक कर रहा है।
फेसबुक पर किसी लड़की की फ्रेंड रिक्वेस्ट आई है। साथ में एक इनबॉक्स मैसेज भी है- ‘एक चायवाला हमारा पाँच रूपया वापस नहीं कर रहा। नीड सम हेल्प। :-) '

लप्रेक (लघु प्रेम कथा)- लव राइड ऑन NH 2

‘यार कहीं घूमने चलें!’
कहाँ चलोगी?

‘तुम्हारा शहर है तुम बताओ।’

मोतीझील!
‘नो वे।’

जेके टेम्पल!
‘जा चुके हैं।’

अच्छा, फिर जेड स्क्वायर चलते हैं!
‘अरे यार, ये मॉल्स तो सब एक से ही होते हैं। कुछ भी तो नया नहीं होता।’

चलो फिर बिठूर चलते हैं।
‘तुम्हारा न टेस्ट ही ख़राब है। कानपुर में कोई ऐसी जगह नहीं है जो एक्साइटिंग हो, थ्रिलिंग हो!’

तो फिर तुम ही डिसाइड कर के बताओ कि कहाँ चलोगी।
‘तुम्हारा शहर है, तुम बताओ।’
लेव, फिर वही बात।

‘बाइक में पेट्रोल है?’
हाँ कल ही तो भरवाए थे।
“चलो NH 2 पर चलते हैं। तुम बाइक चलाओ मैं पीछे बैठती हूँ।”
हाइवे राइड?

“लाओ यार चाभी दो तुम गाड़ी की। तुमसे कुछ न हो पाएगा।”

सीरीयसली!! यू कैन ड्राइव?
“होल्ड टाइट। ऑय एम गॉना चेज द विन्ड।”



रॉजर दैट।

लप्रेक (लघु प्रेम कथा)- ओस

तीन साल पहले अल्पना का ब्रेकअप हुआ था। आकाश से। स्कूल टाइम से रिलेशनशिप में थे दोनों। 
अल्पना के ऑफिस में एक नया मेंबर आया था। एकदम हैंडसम हंक। अल्पना शुरू में डर रही थी उससे बात करने में। पर फिर दोस्ती हुई तो ऐसी कि अगले वीक वेडिंग एनिवर्सरी सेलीब्रेट करने मॉरीशस जा रहे दोनों। खुश है अल्पना।

आखिरी बार आकाश से बोली थी- “ऑय एम सॉरी।”
आकाश- “सॉरी किसलिए? एवरीवन हैज ए नैचुरल राइट टू लिव फ्री एंड बी हैप्पी। एंड यू आर एक्सरसाइजिंग योर नैचुरल राइट। देयर इज नथिंग राँग इन दैट। सो डॉन्ट फील सॉरी एंड ऑलवेज लिव विद वॉट यू लाइक द मोस्ट”- कहते-कहते गला भर आया था उसका।

तीन साल हो गए हैं।
नवम्बर की गुलाबी सर्दी शुरू हो गई है। अल्पना हॉफ बाँह का कॉर्डिगन डाले पार्क में टहल रही है। दूब पर गिरी ओस इतनी नाजुक है कि उसका छूने को दिल कर रहा।
सामने पाँच-छः साल की एक लड़की दूब में उलझी ओस की बूंदो को अपनी हथेली पर सजा रही है।

अल्पना - “बेटा ये आप क्या कर रही हो?”
लड़की- “चाँद की हेल्प।”
अल्पना को समझ नहीं आया तो पूछी- “कैसे?”
लड़की- “दीदी आपको पता है ये ओस कहाँ से आती है?”
अल्पना- “नहीं तो।”
लड़की- “जब चाँद रोता है न रात को तब उसके आँसू ओस बनकर धरती पर गिरते हैं।”
अल्पना थोड़ा मुस्कुराई- “अच्छा, तुम्हें किसने बताया ये!”
लड़की दूर एक तरफ इशारा कर देती है- “वो भैया ने।” वहाँ एक लड़का कुछ बच्चों को पढ़ा रहा है। पार्क में ही बैठकर।
अल्पना- कौन है वो?
लड़की- “ये तो कभी बताया ही नहीं दीदी। पर भैया न रोज सुबह आते हैं यहाँ। तो हम सब चले जाते हैं उनसे पढ़ने के लिए। और पता है दीदी, खूब सारी कहानियां भी सुनाते हैं। बम्बल बी वाली कहानी तो मुझे बहुत पसन्द है। बम्बल बी न एक रोबोट है येलो कलर का। और पता है दूसरे प्लैनेट से आया है। सबका दोस्त है ...”

अल्पना उस लड़के की तरफ बढ़ती है। कुछ पहचाना सा लग रहा है। 
मोबाइल की घंटी बजी।
हैलो!
“अरे अल्पना कहाँ हो यार! पैकिंग नहीं करनी है? फ्लाइट रीस्केड्यूल हो गयी है। दोपहर में निकलना है।”
या ओके। आए एम ऑन मॉय वे।
और वो पलट कर घर की तरफ चल पड़ती है।

आकाश की क्लास का भी ब्रेक हुआ है अभी।

हिन्दी दिवस 2015

हिन्दी को बचाना जरूरी है क्या? ऐसा कौन सा खतरा आ गया है हिन्दी पर?

हमारी समस्या हिन्दी के साथ हो रहा अन्याय नहीं है। हम रूढ़िवादी लोग हैं। हममें परिवर्तन को स्वीकारने की ताकत नहीं है। इसी कमजोरी को सबके सामने आने से बचाने के लिए हम ये सब ढोंग करते रहते हैं। ये ऐसे ही है जैसे हम सब पर्यावरण पर निबन्ध लिखते हैं पर हममें से कितने लोगों ने अपने जीवन में एक पेड़ लगाया है?

किसी भी भाषा का मूल उद्देश्य है अभिव्यक्ति। यदि भाषा में अभिव्यक्ति नहीं है तो वह मृत है। उसे किस हेतु बचाना? आज जो हिन्दी बोली जा रही है वह समकालीन हिन्दी है। कन्टेम्पररी हिन्दी। और भाषा को समकालीन ही रहना चाहिए। भाषा यदि शाश्वत, इटरनल, हो गयी तो धीरे-धीरे अभिव्यक्ति समाप्त होने लगती है, जैसा कि प्राचीन विलुप्त हो चुकी भाषाओं के साथ हुआ। प्राचीन भाषाएं नवीन का समायोजन नहीं कर सकीं। इसी हठधर्मिता का प्रयास हम हिन्दी पर भी कर रहे हैं। आज भी हम हिन्दी की तुलना कबीर और तुलसी की भाषा से करते हैं। सोचिए यदि महादेवी वर्मा ने, पंत ने या निराला ने कहीं कबीर की भाषा में लिखा होता तो आज उन्हें कोई पढ़ता क्या? हठ भाषा की हत्या है।

भाषा स्वदेशी या विदेशी नहीं होती। अंग्रेजी कोई विशुद्ध भाषा नहीं है। स्पैनिश और इटैलिक शब्दों से भरी पड़ी है अँग्रेजी। फिर भी विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। यदि हम भाषा के संक्रमण से चिंतित हैं तो यह चिंता व्यर्थ है। वैश्विक प्रेम और शांति के लिए सांस्कृतिक मिलन होना होगा। संस्कृतियां तभी मिल सकती हैं जब भाषाएं आपस में गले मिले। प्रेमचन्द जी का साहित्य उर्दू और फारसी के शब्दों से भरा पड़ा है। और प्रेमचन्द जी का साहित्य अनुवादित साहित्य नहीं है। यह हिन्दी में ही लिखा गया है। तो फिर उठा कर फेंक दीजिए न उनका सारा साहित्य, या फिर हिन्दी पट्टी से ही बाहर कर दीजिए प्रेमचन्द को। हम कभी ऐसा नहीं कर सकते।

आज हम जिस भी भाषा में अपने को अभिव्यक्त कर रहे हैं वह हिन्दी ही है। हम जो अँग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करते हैं अपनी बातचीत में वो भी हिन्दी ही है। हममें से कितने लोग मोबाईल फोन को दूरभाष यन्त्र कहते हैं? प्रश्न है कि हम क्यों नहीं कह सकते। शब्द तो है हमारे पास। पर हम नहीं कह सकते क्योंकि मोबाईल हमारा अविष्कार नहीं है। योग और आयुर्वेद हमनें दिया है। यह उसी रूप में स्वीकार किया गया है। 

हमारी लड़ाई अँग्रेजों से थी। कभी थी, पर आज तो नहीं है। फिर भी हममें बहुत से लोग हैं जिन्हें आज भी नफरत है अँग्रेजों से। अब चूँकि वो अँग्रेजों से प्रत्यक्ष लड़ाई नहीं लड़ सकते तो उन सब ने मिलकर अँग्रेजी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। अँग्रेज हम पर अत्याचार न करते तो हमें अँग्रेजी को स्वीकार करने में इतनी समस्या न आती। और अँग्रेजी ही क्यों हमारी अपनी प्रान्तीय भाषाएँ हमारे लिए कम सिरदर्द हैं क्या? तमिलनाडु में हिन्दी पसन्द नहीं की जाती। मराठा और कन्नड़ एक दूसरे के धुर विरोधी हैं। पूर्वोत्तर राज्यों की भाषा बोलने वालों को हिन्दी भाषी राज्यों में मारा पीटा जाता है। ये सब तो हमारे अपने लोग हैं। फिर इतनी नफ़रत क्यों है?  यह लड़ाई भाषा की है ही नहीं। यह लड़ाई नफरत की है।
हमारे भीतर प्रेम नहीं है। भाषा तो महज हथियार है। 

हम मानकर बैठ गए हैं कि हमसे बढ़कर कोई नहीं है या हो ही नहीं सकता। हमारे पास कणाद हैं तो अँग्रेजों के पास भी आईन्सटीन हैं। उन्होंने तीन सौ वर्षों में सैकणों आईन्सटीन पैदा किए। पर हमने कितने शोध किए हैं पछले दो हजार वर्षों में? हमारे पास जो भी है वो दो हजार वर्ष पुराना है। और क्योंकि हमारी चीज पुरानी है तो इसका मोल अधिक होना चाहिए। ऐसी सोच रखने वालों ने ही हिन्दी और हिन्दुस्तान को खतरे डाला है।

हममें से कितने लोग हिन्दी रोज पढ़ते हैं? फेसबुक पर हिन्दी में पोस्ट लिखना पसन्द करते हैं? अभिवादन हिन्दी में करते हैं या एक टेक्स्ट मैसेज हिन्दी में टाइप करते हैं? हम हिन्दी का अखबार ही पढ़ते हैं रोज। लिखने वाले पत्रकार की हिन्दी पढ़ते हैं। बस इतनी ही हिन्दी पढ़ कर हम हिन्दी के ध्वजवाहक बन गए हैं।

हमारी समझ में दोष है। सोच कुंठित है। nice pic, miss u, omg, lol, rofl ऐसे कुछ दस पन्द्रह शब्द जानने वाला अपने आप को John Milton और Jane Austen समझने लगता है। मजे की बात ये है कि यही लोग हिन्दी बचाने का झंडा भी बुलन्द किए हैं।

साहित्य कहीं का भी हो, किसी भी भाषा या किसी काल का हो, वह हमेशा सर्वश्रेष्ठ होता है। रूसी साहित्यिक दोस्तोवस्की और टॉल्स्टॉय के उपन्यासों ने दुनिया को जो आइना दिया वह कोई और लेखक नहीं दे सका। अल्बर्ट कामू और फ्रेडरिक नीत्शे के दर्शन की तुलना आप किससे करेंगे? न तो आप दूसरा हरमन हेस पैदा कर सकते हैं और न ही दूसरा वेद व्यास। 

साहित्य में अपने वक्त की कहानी कहने की पूरी ताकत होती है। उसे उन्मुक्त छोड़ देना चाहिए अपनी कहानी कहने के लिए।
बिना वजह के उलझनों में फँसाकर हम हिन्दी का नुकसान ही कर रहे हैं। हम जिस समय में हैं और जिस माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त कर रहे हैं वही हमारी भाषा है। यही हिन्दी है। आप इसे कुछ भी कहें कोई फर्क नहीं पड़ता है।

आज हिन्दी दिवस पर बहुत सारे लोग व्याख्यान देंगे। अधिकाँश तो सिर्फ इसलिए जाते हैं कि वहां बढ़िया नाश्ता मिलेगा।
बच के रहें ऐसे लोगों से।

गुरुवार, 29 दिसंबर 2016

O little Dove

O little Dove
Its not your home.
This earth is ours
And nothing is yours.
We build home
We build palaces.
What have you done
To this beautiful planet?
O little Dove
Its not your home.

We own your jungle,
We own your trees,
We own your water,
And we own your rivers,
This all is ours
And nothing for you.
O little Dove
Its not your home.

We have money
Lots of money.
Do you have it?
We believe in god
So we can kill the Nature.
You believe in god?
No! Then,
O little Dove
Its not your home.

Why have you come
To build your home?
We can't give space
For your fledgling.
They are not human
And so we are.
Go somewhere else,
Make your nest
Hatch your eggs,
And never ever come back.
See! little Dove
Its not your home.

-Sanjeev 


[Post Scriptum- 2 Doves trying to build a nest over my room ventilator. Trying for so many days, but couldn't do that because the ventilator platform is not wide enough to hold their nest. Everyday they come and coo. So I decided to widen that area somehow. Using my architectural skills, I built this. Now they are collecting grasses over it. 😘]