हिन्दी को बचाना जरूरी है क्या? ऐसा कौन सा खतरा आ गया है हिन्दी पर?
हमारी समस्या हिन्दी के साथ हो रहा अन्याय नहीं है। हम रूढ़िवादी लोग हैं। हममें परिवर्तन को स्वीकारने की ताकत नहीं है। इसी कमजोरी को सबके सामने आने से बचाने के लिए हम ये सब ढोंग करते रहते हैं। ये ऐसे ही है जैसे हम सब पर्यावरण पर निबन्ध लिखते हैं पर हममें से कितने लोगों ने अपने जीवन में एक पेड़ लगाया है?
किसी भी भाषा का मूल उद्देश्य है अभिव्यक्ति। यदि भाषा में अभिव्यक्ति नहीं है तो वह मृत है। उसे किस हेतु बचाना? आज जो हिन्दी बोली जा रही है वह समकालीन हिन्दी है। कन्टेम्पररी हिन्दी। और भाषा को समकालीन ही रहना चाहिए। भाषा यदि शाश्वत, इटरनल, हो गयी तो धीरे-धीरे अभिव्यक्ति समाप्त होने लगती है, जैसा कि प्राचीन विलुप्त हो चुकी भाषाओं के साथ हुआ। प्राचीन भाषाएं नवीन का समायोजन नहीं कर सकीं। इसी हठधर्मिता का प्रयास हम हिन्दी पर भी कर रहे हैं। आज भी हम हिन्दी की तुलना कबीर और तुलसी की भाषा से करते हैं। सोचिए यदि महादेवी वर्मा ने, पंत ने या निराला ने कहीं कबीर की भाषा में लिखा होता तो आज उन्हें कोई पढ़ता क्या? हठ भाषा की हत्या है।
भाषा स्वदेशी या विदेशी नहीं होती। अंग्रेजी कोई विशुद्ध भाषा नहीं है। स्पैनिश और इटैलिक शब्दों से भरी पड़ी है अँग्रेजी। फिर भी विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। यदि हम भाषा के संक्रमण से चिंतित हैं तो यह चिंता व्यर्थ है। वैश्विक प्रेम और शांति के लिए सांस्कृतिक मिलन होना होगा। संस्कृतियां तभी मिल सकती हैं जब भाषाएं आपस में गले मिले। प्रेमचन्द जी का साहित्य उर्दू और फारसी के शब्दों से भरा पड़ा है। और प्रेमचन्द जी का साहित्य अनुवादित साहित्य नहीं है। यह हिन्दी में ही लिखा गया है। तो फिर उठा कर फेंक दीजिए न उनका सारा साहित्य, या फिर हिन्दी पट्टी से ही बाहर कर दीजिए प्रेमचन्द को। हम कभी ऐसा नहीं कर सकते।
आज हम जिस भी भाषा में अपने को अभिव्यक्त कर रहे हैं वह हिन्दी ही है। हम जो अँग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करते हैं अपनी बातचीत में वो भी हिन्दी ही है। हममें से कितने लोग मोबाईल फोन को दूरभाष यन्त्र कहते हैं? प्रश्न है कि हम क्यों नहीं कह सकते। शब्द तो है हमारे पास। पर हम नहीं कह सकते क्योंकि मोबाईल हमारा अविष्कार नहीं है। योग और आयुर्वेद हमनें दिया है। यह उसी रूप में स्वीकार किया गया है।
हमारी लड़ाई अँग्रेजों से थी। कभी थी, पर आज तो नहीं है। फिर भी हममें बहुत से लोग हैं जिन्हें आज भी नफरत है अँग्रेजों से। अब चूँकि वो अँग्रेजों से प्रत्यक्ष लड़ाई नहीं लड़ सकते तो उन सब ने मिलकर अँग्रेजी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। अँग्रेज हम पर अत्याचार न करते तो हमें अँग्रेजी को स्वीकार करने में इतनी समस्या न आती। और अँग्रेजी ही क्यों हमारी अपनी प्रान्तीय भाषाएँ हमारे लिए कम सिरदर्द हैं क्या? तमिलनाडु में हिन्दी पसन्द नहीं की जाती। मराठा और कन्नड़ एक दूसरे के धुर विरोधी हैं। पूर्वोत्तर राज्यों की भाषा बोलने वालों को हिन्दी भाषी राज्यों में मारा पीटा जाता है। ये सब तो हमारे अपने लोग हैं। फिर इतनी नफ़रत क्यों है? यह लड़ाई भाषा की है ही नहीं। यह लड़ाई नफरत की है।
हमारे भीतर प्रेम नहीं है। भाषा तो महज हथियार है।
हम मानकर बैठ गए हैं कि हमसे बढ़कर कोई नहीं है या हो ही नहीं सकता। हमारे पास कणाद हैं तो अँग्रेजों के पास भी आईन्सटीन हैं। उन्होंने तीन सौ वर्षों में सैकणों आईन्सटीन पैदा किए। पर हमने कितने शोध किए हैं पछले दो हजार वर्षों में? हमारे पास जो भी है वो दो हजार वर्ष पुराना है। और क्योंकि हमारी चीज पुरानी है तो इसका मोल अधिक होना चाहिए। ऐसी सोच रखने वालों ने ही हिन्दी और हिन्दुस्तान को खतरे डाला है।
हममें से कितने लोग हिन्दी रोज पढ़ते हैं? फेसबुक पर हिन्दी में पोस्ट लिखना पसन्द करते हैं? अभिवादन हिन्दी में करते हैं या एक टेक्स्ट मैसेज हिन्दी में टाइप करते हैं? हम हिन्दी का अखबार ही पढ़ते हैं रोज। लिखने वाले पत्रकार की हिन्दी पढ़ते हैं। बस इतनी ही हिन्दी पढ़ कर हम हिन्दी के ध्वजवाहक बन गए हैं।
हमारी समझ में दोष है। सोच कुंठित है। nice pic, miss u, omg, lol, rofl ऐसे कुछ दस पन्द्रह शब्द जानने वाला अपने आप को John Milton और Jane Austen समझने लगता है। मजे की बात ये है कि यही लोग हिन्दी बचाने का झंडा भी बुलन्द किए हैं।
साहित्य कहीं का भी हो, किसी भी भाषा या किसी काल का हो, वह हमेशा सर्वश्रेष्ठ होता है। रूसी साहित्यिक दोस्तोवस्की और टॉल्स्टॉय के उपन्यासों ने दुनिया को जो आइना दिया वह कोई और लेखक नहीं दे सका। अल्बर्ट कामू और फ्रेडरिक नीत्शे के दर्शन की तुलना आप किससे करेंगे? न तो आप दूसरा हरमन हेस पैदा कर सकते हैं और न ही दूसरा वेद व्यास।
साहित्य में अपने वक्त की कहानी कहने की पूरी ताकत होती है। उसे उन्मुक्त छोड़ देना चाहिए अपनी कहानी कहने के लिए।
बिना वजह के उलझनों में फँसाकर हम हिन्दी का नुकसान ही कर रहे हैं। हम जिस समय में हैं और जिस माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त कर रहे हैं वही हमारी भाषा है। यही हिन्दी है। आप इसे कुछ भी कहें कोई फर्क नहीं पड़ता है।
आज हिन्दी दिवस पर बहुत सारे लोग व्याख्यान देंगे। अधिकाँश तो सिर्फ इसलिए जाते हैं कि वहां बढ़िया नाश्ता मिलेगा।
बच के रहें ऐसे लोगों से।